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Thursday, August 25, 2016

पित्तजन्य विकारों में उपयोगी घरेलू उपचार

शरद ऋतू (२२ अगस्त से २१ अक्टूबर तक) में पित्त कुपित व जठराग्नि मंद रहती है, जिससे पित्त-प्रकोपजन्य अनेक व्याधियाँ उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है | इनके शमन के लिए कुछ घरेलू उपचार दिये जा रहे हैं |

उलटी : पित्त – प्रकोप से होनेवाली मिचली या उलटी में आँवला रस में शहद मिला के चटायें |

पित्तजनित सिरदर्द : आँवले के चूर्ण में घी व मिश्री मिलाकर लें अथवा ताजे आँवलों के रस में मिश्री मिला के लें | ( सिरदर्द के साथ जी मिचलाना, जलन आदि पित्त के कारण होनेवाले सिरदर्द के लक्षण हैं | )

अम्लपित्त : २ ग्राम छोटी हरड का चूर्ण शहद अथवा गुड़ में मिला के प्रतिदिन शाम को भोजन के बाद १५ दिन तक लेना लाभदायी है |

जलन : काली द्राक्ष रात में भिगोयें | दूसरे दिन सुबह उसे मसल के छान लें | उसमें पिसा जीरा व मिश्री डाल के पीने से पित्त का दाह मिटता है |


स्त्रोत - लोककल्याण सेतु – अगस्त २०१६ से 

स्वास्थ्य – हितकारी सब्जी – तोरई ( गिल्की )

तोरई (गिल्की) स्वादिष्ट, पथ्यकर व औषधीय गुणों से युक्त सब्जी है | आयुर्वेद के अनुसार यह स्वाद में मीठी, स्निग्ध, ठंडी (शीत), पचने में थोड़ी भारी होती है | यह पित्त – विकृति को दूर करती है | उष्ण प्रकुतिवालों के लिए एवं पित्तजन्य व्याधियों तथा सूजाक (गनोरिया), बवासीर, रक्तमूत्र, रक्तपित्त, खाँसी, बुखार, कृमि आदि में विशेष पथ्यकर है |

तोरई में जस्ता (जिंक), लौह तत्त्व, मैग्नेशियम, थायमीन और रेशे (फाइबर) प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं | तोरई के बीजों का तेल कुष्ठ और त्वचा के विविध रोगों में लाभदायी है |


तोरई की सब्जी          
तोरई की सब्जी भोजन में रूचि उत्पन्न करती है | स्निग्ध व ठंडी होने के कारण तोरई शरीर में तरावट लाती है | इसकी सब्जी को सुपाच्य व अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए नींबू का रस और काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर खाना चाहिए |

तोरई के लाभ  
१] बालक व श्रमजीवियों को शक्ति देती है |

२] शुक्र धातु की क्षीणता से आनेवाली शारीरिक व मानसिक दुर्बलता व चिड़चिड़ापन दूर करने के लिए तोरई की सब्जी, सूप अथवा तोरई डालकर बनायी गयी दाल का एक हफ्ते तक सेवन करने से लाभ होता है |

३] सुखी खाँसी में जब कफ न छूट रहा हो तब इसका सेवन करने से कफ निष्कासित होकर खाँसी में राहत मिलती है |

४] मूत्र-विकार व पेशाब की जलन दूर होती है | मूत्र खुलकर आता है |

५] बवासीर की तकलीफ में तोरई की सब्जी खाने तथा तोरई के ताजे पत्ते पीसकर मस्सों पर लगाने से लाभ होता है |

६] वजन कम करने व मधुमेह में काफी फायदेमंद होती है | तोरई का रस पीलिया में हितकारी है |

७] रक्त को शुद्ध करती है | मुँहासे, एक्जिमा, सोरायसिस और अन्य त्वचासंबंधी रोगों में पथ्य के रूप में फायदेमंद है |

८] नेत्रज्योति बढ़ाती है | अम्लपित्त में खूब लाभदायी है |

९] कब्ज की शिकायत में शाम के भोजन में इसका उपयोग करना हितकर है | इसके लिए  सब्जी रसदार बनानी चाहिए |

१०] बुखार में तोरई का सूप शक्ति व तरावट देता है |

११] जिन्हें बार – बार कृमि हो जाते हों, वे हफ्ते में २ – ३ बार तोरई की सूखी सब्जी खायें |

सावधानी : वर्षा ऋतू में इसका प्रयोग कम मात्रा में करें | पेचिश, मंदाग्नि, बार – बार मलप्रवृत्ति की समस्या में इसका सेवन नहीं करना चाहिए |


स्त्रोत - लोककल्याण सेतु – अगस्त २०१६ से 

संतकृपा चूर्ण

ताजगी, स्फूर्ति एवं उत्तम स्वास्थ्य के लिए संत-महात्मा की प्रेरणा – प्रसादी

पेट के अनेक विकार जैसे कब्ज, गैस की तकलीफ, बदहजमी, अरुचि, भूख की कमी, अम्लपित्त ( एसिडिटी), कृमि, सर्दी, जुकाम, खाँसी, सिरदर्द आदि दूर करने में कारगर तथा विशेष शक्ति, स्फूर्ति एवं ताजगी प्रदायक चूर्ण |

अपने नजदीकी संत श्री आशारामजी आश्रम या समिति के सेवाकेंद्र से इसे प्राप्त कर सकते है |


स्त्रोत - लोककल्याण सेतु – अगस्त २०१६ से 

नीम तेल

यह घाव को शीघ्र भरनेवाला, बालों के लिए हितकारी, कृमिनाशक व चर्म – रोगों में उपयोगी है | दाद, खाज, खुजली, शरीर पर लाल चकत्ते निकलना, नये एवं पुराने घाव, हाथीपाँव आदि में लाभकारी है |

अपने नजदीकी संत श्री आशारामजी आश्रम या समिति के सेवाकेंद्र से इसे प्राप्त कर सकते है |


स्त्रोत - लोककल्याण सेतु – अगस्त २०१६ से 

Wednesday, August 17, 2016

स्वास्थ का रक्षक - योगी आयु तेल

इससे सिर के सभी रोगों का शमन होता है | मस्तिष्क में रुके कफ व मल का विरेचन होकर मस्तिष्क में शक्ति-संचार होता है | नाड़ियाँ बलवान बनती हैं तथा नाक, कान और सिर के रोग नष्ट होते हैं | 

सामान्य या बारम्बार की सर्दी, पुराना जुकाम, कान में दर्द होने या मवाद बहने पर तथा सिरदर्द में यह बहुत लाभदायी हैं |

प्राप्ति हेतु नजदीकी  संत श्री आशारामजी आश्रम या समिति के सेवाकेंद्रोंपर सम्पर्क करें |



स्त्रोत : ऋषिप्रसाद – अगस्त २०१६ से 

Sunday, August 14, 2016

तेलों में सर्वश्रेष्ठ बहुगुणसम्पन्न तिल का तेल

तेलों में तिल का तेल सर्वश्रेष्ठ है | यह विशेषरूप से वातनाशक होने के साथ ही बलकारक, त्वचा, केश व नेत्रों के लिए हितकारी, वर्ण ( त्वचा का रंग ) को निखारनेवाला, बुद्धि एवं स्मृतिवर्धक, गर्भाशय को शुद्ध करनेवाला और जठराग्निवर्धक है | वात और कफ को शांत करने में तिल का तेल श्रेष्ठ हैं |

अपनी स्निग्धता, तरलता और उष्णता के कारण शरीर में सूक्ष्म स्त्रोतों में प्रवेश कर यह दोषों को जड़ से उखाड़ने तथा शरीर के सभी अवयवों को दृढ़ व मुलायम रखने का कार्य करता है |  टूटी हुई हड्डियों व स्नायुओं को जोड़ने में मदद करता है |

तिल के तेल की मालिश करने व उसका पान करने से अति स्थूल (मोटे ) व्यक्तियों का वजन घटने लगता है व कृश ( पतले ) व्यक्तियों का वजन बढ़ने लगता है | तेल खाने की अपेक्षा मालिश करने से ८ गुना अधिक लाभ करता है | मालिश से थकावट दूर होती है, शरीर हलका होता है | मजबूत व स्फूर्ति आती है | त्वचा का रुखापन दूर होता है, त्वचा में झुर्रियाँ तथा अकाल वार्धक्य नहीं आता | रक्तविकार, कमरदर्द, अंगमर्द ( शरीर का टूटना ) व वात-व्याधियाँ दूर रहती हैं | शिशिर ऋतू में मालिश विशेष लाभदायी है |

औषधीय प्रयोग

१] तिल का सेवन १०-१५ मिनट तक मुँह में रखकर कुल्ला करने से शरीर पुष्ट होता है, होंठ नहीं फटते, कंठ नहीं सूखता, आवाज सुरीली होती है, जबड़ा व हिलते दाँत मजबूत बनते हैं और पायरिया दूर होता है |

२] ५० ग्राम तिल के तेल में १ चम्मच पीसी हुई सोंठ और मटर के दाने बराबर हींग डालकर गर्म किये हुए तेल की मालिश करने से कमर का दर्द, जोड़ों का दर्द, अंगों की जकड़न, लकवा आदि वायु के रोगों में फायदा होता है |

३] २०-२५ लहसुन की कलियाँ २५० ग्राम तिल के तेल में डालकर उबालें | इस तेल की बूँदे कान में डालने से कान का दर्द दूर होता है |

४] प्रतिदिन सिर में काले तिलों के शुद्ध तेल से मालिश करने से बाल सदैव मुलायम, काले और घने रहते हैं, बाल असमय सफेद नहीं होते |

५] ५० मि.ली. तिल के तेल में ५० मि.ली. अदरक का रस मिला के इतना उबालें कि सिर्फ तेल रह जाय | इस तेल से मालिश करने से वायुजन्य जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है |

६] तिल के तेल में सेंधा नमक मिलाकर कुल्ले करने से दाँतों के हिलने में लाभ होता है |

७] घाव आदि पर तिल का तेल लगाने से वे जल्दी भर जाते हैं |


स्त्रोत : ऋषिप्रसाद – अगस्त २०१६ से 

एक्यूप्रेशर द्वारा ह्रदयरोग का इलाज


१] ह्रदय से संबंधित प्रतिबिम्ब केंद्र बायें तलवे तथा बायीं हथेली में ऊँगलियों से थोडा नीचे होते हैं | जहाँ दबाने से अपेक्षाकृत अधिक दर्द हो अर्थात काँटे जैसी चुभन हो, उन केन्द्रों पर विशेष रूप से दबाव दें |  ( देखें चित्र -१ )   



२] ह्रदयरोगों के निवारण के लिए स्नायु संस्थान, गुर्दों तथा फेफड़ों का स्वस्थ होना बहुत जरूरी है | अत: इनसे संबंधित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर भी दबाव देना चाहिए |  ( देखें चित्र – २ तथा ३ )

ह्रदयरोगों के निवारण तथा ह्रदय को सशक्त बनाने के लिए अंत:स्त्रावी ग्रंथियों ( पिट्युटरी, पीनियल, थायराँइड आदि ) की कार्यप्रणाली को अधिक प्रबल बनाने की आवश्यकता होती है | अत: इनसे संबंधित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर भी दबाव देना चाहिए |

वर्तमान समय में अनियमित दिनचर्या, अप्राकृतिक खान-पान, व्यायाम तथा शारीरिक परिश्रम न करना, दवाइयों का अधिक सेवन करना, अपर्याप्त निद्रा, मानसिक तनाव, चिंता, ईर्ष्या, नशा करना आदि कारणों ह्रदयरोग बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं |

अत: उपरोक्त कारणों से बचें तथा पूज्य बापूजी द्वारा बतायी गयी जैविक घड़ी पर आधारित दिनचर्या ( पढ़ें ऋषि प्रसाद, सितम्बर २०१५, पृष्ठ ३२ और ऑनलाइन भी पढ़ सकते हैं - http://successful-life-tips.blogspot.in/2013/03/blog-post_20.html इस लिंकपर ) के अनुसार अपना आहार – विहार रखें | सत्शास्त्रों व ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के सत्संग के पठन, श्रवण तथा चिंतन से तनाव, मानसिक अवसाद, चिंता, अशांति आदि दूर होते हैं, विचार सकारात्मक होते हैं तथा ह्रदय को आह्लादित, आनंदित और निरोग रखनेवाले द्रव्य पैदा होते हैं | इनका रोगी- निरोगी सभी लाभ ले सकते हैं |



स्त्रोत : ऋषिप्रसाद – अगस्त २०१६ से 

अष्टावक्र गीता

मनुष्य-जीवन का मुख्य उद्देश्य है आत्मसाक्षात्कार अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा-परमात्मा को जान लेना | इसके लिए जिज्ञासु व तत्पर साधकों को ब्रह्मस्वभाव में स्थित हों अनिवार्य है | इसी ब्रह्मस्वभाव का सत्य महामुनि अष्टावक्रजी महाराज ने राजा जनक को सुनाया-समझाया, जो ‘अष्टावक्र गीता’ के नाम से प्रसिद्ध है | यह ग्रंथ योगवासिष्ठ महारामायण, अवधूत गीता आदि वेदान्त ग्रंथों की श्रुंखला में आता है | इसे ‘अष्टावक्र संहिता’ भी कहा जाता है |

अष्टावक्र गीता का ज्ञान सनातन संस्कृति की ऐसी अनमोल धरोहर है जो जीवन का सत्य, जो कि परमानन्दस्वरुप है, शांतस्वरूप है, वह मानवमात्र को उसीके पास ... नहीं - नहीं, वह स्वयं है यह बता देती हैं | ऐसे संस्कार हर उम्र के, हर मत-पन्थ के, जाति-धर्म के मनुष्य का परम हित करनेवाले हैं | य बचपन में या गर्भावस्था में मिलें तो और भी सरलता से आत्मसात होकर कल्याण करेंगे | अत: गर्भिणी स्त्रियों को, माताओं – बहनों को इसके श्लोकों का अथवा इसीके भावानुवादस्वरूप बनी आश्रम की पुस्तिका ‘श्री ब्रह्मरामायण’ का पठन , चिंतन, श्रवण एवं गायन करते रहना चाहिए |


स्त्रोत : ऋषिप्रसाद – अगस्त २०१६ से 

इन तिथियों का लाभ लेना न भूलें

२५ अगस्त : जन्माष्टमी ( भारतवर्ष में रहनेवाला जो प्राणी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह सौ जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है | - ब्रह्मवैवर्त पुराण )  

२८ अगस्त : अजा एकादशी ( यह व्रत सब पापों का नाश करनेवाला है | इसका माहात्म्य पढ़ने व सुनने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है | )

५ सितम्बर : गणेश-कलंक चतुर्थी, चन्द्रदर्शन निषिद्ध ( चन्द्रास्त : रात्रि ९-३३ )                                    ( ‘ॐ गं गणपतये नम:’ मंत्र का जप करने और गुड़मिश्रित जल से गणेशजी को स्नान कराने एवं दूर्वा व सिंदूर की आहुति देने से विघ्न-निवारण होता है तथा मेधाशक्ति बढ़ती है | )

१३ सितम्बर : पद्मा एकादशी ( व्रत करने व माहात्म्य पढ़ने – सुनने से सर्व पापों का नाश | )

१६ सितम्बर : षडशीति संक्रांति ( पुण्यकाल : दोपहर १२-१३ से शाम ६-३७ तक )  (इस दिन किये गये जप-ध्यान व पुण्यकर्म का फल ८६,००० गुना होता है | - पद्म पुराण )

२० सितम्बर : मंगलवारी चतुर्थी ( सूर्योदय से ११-५९ तक )


स्त्रोत : ऋषिप्रसाद – अगस्त २०१६ से 

घर – परिवार को कैसे रखें खुशहाल ?

आजकल की महिलाएँ झगड़े के पिक्चर, नाटक देखती-सुनती हैं, गाने गाती हैं : ‘इक दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा’ तथा भोजन भी बनाती जाती हैं |

अब जिसके दिल के ही टुकड़े हजार हुए, उसके हाथ की रोटी खानेवाले को तो सत्यानाश हो जायेगा | इसलिए भगवन्नाम या गुरुमंत्र का जप, भगवद-सुमिरन करते हुए अथवा भगवन्नाम-कीर्तन सुनते हुए भोजन बनाइये और कहिये ‘नारायण नारायण नारायण ...’

दूसरी बात, कई माइयाँ कुटुम्बियों को भोजन भी परोसेंगी और फरियाद भी करेंगी, उनको चिंता-तनाव भी देंगी | एक तो वैसे ही संसार में चिंता-तनाव काफी है | उन बेचारियों को पता भी नहीं होता हैं कि हम अपने स्नेहियों को, अपने पति, पुत्र, परिवारवालों को भोजन के साथ जहर दे रही हैं |

“ बाबाजी ! जहर हम दे रही हैं ?”

हाँ, कई बार देती हैं देवियाँ | भोजन परोसा, बताया कि ‘बिजली का बिल ६००० रूपये आया है |’

अब उसकी १८००० रूपये की तो नौकरी है, ६००० रूपये सुनकर मन चिंतित होने से उसके लिए भोजन जहर हो गया | ‘लड़का स्कूल नहीं गया, आम लाये थे वे खट्टे हैं, पडोस की माई ने ऐसा कह दिया है ...’- इस प्रकार यदि महिलाएँ भोजन परोसते समय अपने कुटुम्बियों को समस्या और तनाव की बातें सुनाती हैं तो वह जहर परोसने का काम हो जाता है |

अत: दूसरी कृपा अपने कुटुम्बियों पर कीजिये कि जब वे भोजन करने बैठें तो कितनी भी समस्या, मुसीबत की बात हो पर भोजन के समय उनको तनाव-चिंता न हो | यदि चिंतित हों तो उस समय भोजन न परोसिये, २ मीठी बातें करके ‘नारायण नारायण नारायण.... यह भी गुजर जायेगा, फिक्र किस बात की करते हो ? जो होगा देखा जायेगा, अभी तो मौज से खाइये पतिदेव, पुत्र, भैया, काका, मामा ! ...’ जो भी हों | तो माताओं – बहनों को यह सद्गुण बढ़ाना चाहिए |

भोजन करने के १० मिनट पहले से १० मिनट बाद तक व्यक्ति को खुशदिल, प्रसन्न रहना चाहिए ताकि भोजन का रस भी पवित्र, सात्त्विक और ख़ुशी देनेवाला बने | भोजन का रस अगर चिंता और तनाव देनेवाला बनेगा तो वह जहर हो जायेगा, मधुमेह पैदा कर देगा, निम्न या उच्च रक्तचाप पैदा कर देगा, ह्रदयाघात का खतरा पैदा कर देगा | इसलिए भोजन करने के पहले, भोजन बनाने के पहले तथा भोजन परोसते समय भी प्रसन्न रहना चाहिए और कम-से-कम ४ बार नर-नारी के अंतरात्मा ‘नारायण’ का उच्चारण करना चाहिए |

भाइयों को भी एक काम करना चाहिए | रात को सोते समय जो व्यक्ति चिंता लेकर सोता है वह जल्दी बूढा हो जाता है | जो थकान लेकर सोता है वह चाहे ८ घंटे बिस्तर पर पड़ा रहे फिर भी उसके मन की थकान नहीं मिटती, बल्कि अचेतन मन में घुसती है | इसलिए रात को सोते समय कभी भी थकान का भाव अथवा चिंता को साथ में लेकर मत सोइये | जैसे भोजन के पहले हाथ, पैर और मुँह गीला करके भोजन करते हैं तो आयुष्य बढ़ता है और भोजन ठीक से पचता है, ऐसे ही रात को सोते समय भी अपना चित्त निश्चिंतता से, प्रसन्नता से थकानरहित हो जाय ऐसा चिंतन करके फिर ‘नारायण नारायण...’ जप करते – करते सोइये तो आपके वे ६ घंटे नींद के भी हो जायेंगे और भक्ति में भी गिने जायेंगे | तुम्हारा भी मंगल होगा, तुम्हारे पितरों की भी सद्गति हो जायेगी और संतानों का भी कल्याण होगा |


स्त्रोत : ऋषिप्रसाद – अगस्त २०१६ से 

त्रिकाल संध्या

बर्लिन ( जर्मन ) विश्वविद्यालय में अनुसंधान से सिद्ध हुआ कि – २७ घन फीट प्रति सेकंड वायुशक्ति से शंख बजाने से २२०० घन फीट वायु के हानिकारक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं और उससे आगे की ४०० घन फीट वायु के हानिकारक जीवाणु मुर्च्छित हो जाते हैं | तो शंखनाद, धूप-दीप और भगवान का जप-ध्यान संध्या की वेला में करना चाहिए | इससे अनर्थ से बचकर सार्थक जीवन, सार्थक शक्ति और सार्थक मति – गति प्राप्त होती है |  

त्रिकाल संध्या की महता बताते हुए पूज्य बापूजी कहते हैं : “ जीवन को यदि तेजस्वी, सफल और उन्नत बनाना हो तो मनुष्य को त्रिकाल संध्या जरुर करनी चाहिए | प्रात:काल सूर्योदय से दस मिनट पहले से दस मिनट बाद तक, दोपहर को १२ बजे के दस मिनट पहले से दस मिनट बाद तक तथा सायंकाल को सूर्यास्त के दस मिनट पहले से दस मिनट बाद तक – ये समय संधि के होते हैं | इस समय किये हुए प्राणायाम, जप और ध्यान बहुत लाभदायक होते हैं | ये सुषुम्ना के द्वार को खोलने में सहयोगी होते हैं | सुषुम्ना का द्वार खुलते ही मनुष्य की छुपी हुई शक्तियाँ जागृत होने लगती हैं | जैसे स्वास्थ्य के लिए हम रोज स्नान करते हैं, नींद करते हैं, ऐसे ही मानसिक, बौद्धिक स्वस्थता के लिए संध्या होती है |”

संध्या के समय क्या करें ?

संध्यावंदन की महत्ता बताते हुए पूज्यश्री कहते हैं : “ संध्या के समय ध्यान-भजन करके अपनी सार्थक शक्ति जगानी चाहिए, सत्त्वगुण बढ़ाना चाहिए, दूसरा कोई काम नहीं करना चाहिए | अपने भाग्य की रेखाएँ बदलनी हों, अपनी ७२,००,००,००१ नाड़ियों की शुद्धि करनी हो और अपने मन-बुद्धि को मधुमय करना हो तो १० से १५ मिनट चाहे सुबह की संध्या, दोपहर की संध्या, शाम की संध्या अथवा दोनों, तीनों समय की संध्या विद्युत् का कुचालक आसन बिछाकर करें | यदि संध्या का समय बीत जाय तो भी संध्या ( ध्यान - भजन ) करनी चाहिए, वही भी हितकारी है |

संध्या के समय वर्जित कार्य

संध्या के समय निषिद्ध कर्मों से सावधान करते हुए पूज्य बापूजी कहते हैं :  संध्या के समय व्यवहार में चंचल नहीं होना चाहिए, भोजन आदि खानपान नहीं करना चाहिए और संध्या के समय बड़े निर्णय नहीं लेने चाहिए | पठन – पाठन, शयन नहीं करना चाहिए तथा खराब स्थानों में घूमना नहीं चाहिए | संध्या के समय स्नान न करें | स्त्री का सहवास न करें |

संध्याकाल अथवा प्रदोषकाल ( सूर्यास्त का समय ) में भोजन से शरीर में व्याधियाँ तथा श्मशान आदि खराब स्थानों में घूमने से भय उत्पन्न होता है | दिन में एवं संध्या के समय शयन आयु को क्षीण करता हैं | पठन – पाठन करने से वैदिक ज्ञान और आयु का नाश होता है |      


स्त्रोत : ऋषिप्रसाद – अगस्त २०१६ से