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Monday, October 21, 2013

रक्षा कवच


(संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग - प्रवचन से)
जब आप सत्संग में होते है, शुद्ध वातावरण में होते है, तब लगता है कि कामविकार भोगने में वास्तव में कोई सार नहीं है | धन इकठ्ठा कर-करके ज्यादा सँभालने की चिंता ही तो मिलती है, आखिर कुछ नहीं | अपनी संतान के लिए जो लोग छल - कपट करते है, आखिर में वाही (संतान) उन पर थूकतीहै, यह भी लोगों का अनुभव है | जब आप बाहर जाते हो, बाहर के कामी - क्रोधी लोगों के आभामंडल में जाते हो तो आपकी पुरानी आदत के अनुसार आपको भी काम-क्रोध सताने लगते है |

बाहर जाने पर बाह्य हलकी तरंगो से हमारा पतन हो जाता है और हम पछताते हैं | हम पुन: सावधान होते हैं, किंतु फिर से झटका लग जाता हैं | अच्छे-अच्छे लोगों की यह हालत है | एक-दो की नहीं, लगभग सभीकी यह हालत है |

यदि हम सावधान नहिओ रहें, आप पैर छुएँ और हम छुआते रहें, आप देते और हम लेते रहें तो हमारी भी ऐसी दुर्दशा हो जायेगी कि हम आपको मुँह दिखाने के काबिल न रहेंगे | एक बार ऐसा हुआ था | जब हम अमेरिका गये थे तब मेरे मन में हुआ कि 'ये जो डॉलर आते हैं आरती में, दक्षिणा में, वे हमको अपने पास रखने चाहिए; आयोजन-समिति के हवाले नहीं करने चाहिए | काम में आयेंगे |

थोड़ी ही देर में भगवान् की कृपा हुई, गुरुदेव का सहयोग रहा .... तुरंत मैंने अपने भक्त से कहा कि 'मुझे वापस भारत जाना है , टिकट करवा लो |'
"बापूजी ! कार्यकर्मों का क्या होगा ?"
"जितने हो गए बहुत हैं | जो दो-चार दिये हैं उन्हें पूरा करके भारत जाना है | जल्दी से टिकट करवाओ |"
"क्या हमसे कोई गलती हो गयी है ?"
"नहीं, नहीं | आप लोगों से कोई गलती नहीं हुई हैं |"
किंतु आप लोगों के एयर कंडीशंड वातावरण में रहकर और आप लोगों के श्वासोच्छ्वास में रहकर हमारा मन कहता है कि 'हमें डॉलर रखने चाहिए |'

उनका यह लम्बी बात नहीं कही, किंतु मैंने टिकट बनवा ली और फिसलते-फिसलते बाख गया | भगवान् साक्षी हैं, उसके बाद में अमेरिका कभी नहीं गया | बहुत आमंत्रण आये, बहुत बार वहाँ के लोगों ने बुलाया लेकिन मैं नहीं गया |"

भगवान रामजी के गुरुदेव कहते हैं कि 'हे रामजी ! वासना के आवेग में बहने की दीर्घकाल की आदत दीर्घकालीन शुभ अभ्यास के बिना नहीं मिटती |'


जब रामजी के ज़माने में भी लोग फिसलते थे और दीर्घकालीन अभ्यास की आवश्यकता थी तो अभी तो कलियुग है | अभी तो ज्यादा सावधानी की जरुरत हैं | इस सावधानी के लिए मुझे शास्त्रों में से एक रक्षा -कवच मिल गया है जो मुझे अच्छा लगा | मैंने उसका प्रयोग किया | बड़ा सरल है |
आरंभ में आप यह प्रयोग थोड़े दिन लगातार करें | फिर तो आप याद करेंगे और रक्षा - कवच आपके इर्दगिर्द बन जायेगा | फिर वासना की तरंगे आपके अंदर नहीं घुसेंगी |

आँख ने कुछ देखा, मन उसके लिए लालायित हुआ, बुद्धि ने निर्णय लिया कि ऐसा करना है | इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय मन को खींच लेती है | मन बुद्धि से सम्मत्ति ले लेता है और आप उसमें गरक हो जाते है |

वासना के इन आवेगों से स्वयं को बचने में यदि आप सहयोग नहीं देते तो भगवान और गुरु भी आपको बचने में सफल नहो हो सकते | यदि विद्यार्थी साथ नहीं देता है तो शिक्षक और प्राचार्य मिलकर भ विद्यार्थी को पदवीधारी नहीं बना सकते | अत: पुरुषार्थ तो आपको ही करना पड़ेगा |
भगवान की, शास्त्रों की, ऋषियों एवं सदगुरु की कृपा अनावृत हैं, जैसे सूर्य की किरणे, बरसात सामान्यत: मिलते ही है | किंतु किसान स्वयं मेहनत नहीं करे तो बरसात और सूर्य क्या करेंगे ?
आप अपनी रक्षा कीजिये |

रक्षा -कवच धारण करने एवं आत्मबल जगाने की विधि 

पद्मासन या सिद्धासन में बैठे | मेरुदंड सीधा हो | आँखें आधी खुली -आधी बंद रखे | '
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 या अपने इष्टमंत्र अथवा गुरुमंत्र का जप करते हुए दृढ़ भावना करें कि 'मेरे इष्ट की कृपा का शक्तिशाली प्रवाह मेरे अंदर प्रवेश कर रहा है और मेरे चारों और सुदर्शन चक्र - सा एक इन्द्रधनुषी घेरा बनाकर घूम रहा है | वह अपने दिव्य तेज से मेरी रक्षा कर रहा है | इन्द्रधनुषी प्रकाश घना होता  जा रहा है | दुर्भावनारुपी अंधकार विलीन हो गया है | सात्त्विक प्रकाश -ही-प्रकाश छाया है | सूक्ष्म आसुरी शक्तियों से मेरी रक्षा करने के लिए वह रश्निल चक्र सक्रिय है | मैं पूर्णत: निश्चिंत हूँ |'

श्वास जितनी देर भीतर रोक सकें, रोंके | मन-ही-मन उक्त भावना को दोहराये | मानसिक चित्र बना लें | अब धीरे-धीरे '
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ॐ ....
' का दीर्घ उच्चारण करते हुए श्वास बाहर निकाले और भावना करें कि 'मेरे सारे दोष, विकार भी बाहर निकल गए है | मन-बुद्धि शुद्ध हो गये हैं | श्वास के खाली होने के बाद तुरंत श्वास न लें | यथाशक्ति बिना श्वास रहें और भीतर-ही-भीतर '
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हरि ॐ ... हरि ॐ ....
' का मानसिक जप करें | दस-पंद्रह मिनट ऐसे प्राणायामसहित उच्च स्वर से 'ॐ ...' की ध्वनि करके शांत हो जायें | सब प्रयास छोड़ दें | वृत्तियों को आकाश की ओर फैलने दें | आकाश के अन्दर पृथ्वी है | पृथ्वी पर अनेक देश, अनेक समुद्र एवं अनेक लोग हैं | उनमें से एक आपका शरीर आसन पर बैठा हुआ हैं | इस पुरे दृश्य को आप मानसिक आँख से, भावना से देखते रहें | आप शरीर नहीं हो बल्कि अनेक शरीर, देश, सागर, पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र एवं पुरे ब्रम्हांड के दृष्टा हो, साक्षी हो, इस साक्षीभाव में जाग जायें |

थोड़ी देर के बाद फिर से प्राणायामसहित '
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ॐ ....' का जाप करें और शांत होकर अपने विचारों को देखते रहें |

इस अवस्था में दृढ़ निश्चय करें कि 'मैं जैसा बनना चाहता हूँ वैसा होकर ही रहूँगा |' विषयसुख, सत्ता, धन-दौलत इत्यादि कि इच्छा न करें क्योंकि आत्मबलरूपी हाथी के पदचिन्ह में अन्य सभीके पदचिन्ह समाविष्ट हो ही जायेंगे | आत्मानंदरूपी सूर्य के उदय होने पर मिट्टी के तेल के दीये के प्रकाशरूपी क्षुद्र सुखाभास कि गुलामी कौन करें ?

किसी भी भावना को साकार करने के लिए ह्रदय को कुरेद डाले ऐसी निश्चयात्मक बलिष्ठ वृत्ति होनी आवश्यक है | | अंत:करण के गहरे -से -गहरे प्रदेश में चोट करे ऐसा श्वास भरके निश्चयबल का आवाहन करें | सीना तानकर खड़े हो जाये अपने मन कि दीन-हीन, दु:खद मान्यतावों को कुचल डालने के लिए |

सदा स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ आपकी शक्ति भी बिखरती रहती है | अत: तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधनाकाल में आत्मचिंतन में लगाये और व्यवहारकाल में जो कार्य करते हो उसमें लागायें | हरेक कार्य आवेशरहित व दत्तचित्त होकर करें | सदैव विचारशील एवं प्रसन्न रहें | जीवमात्र को अपना स्वरुप समझे | सबसे स्नेह करें | दिल को व्यापक रखें | खंडनात्मक वृत्ति का सर्वथा त्याग करें |


  
आत्मनिष्ठा में जगे हुए महापुरुषों के सत्संग तथा सत्साहित्य से अपने जीवन को  मुखरित हो जायेगी | दुष्प्रभावों के अदृश्य परमाणुओं के भजन के लिए ये अचूक साथी है | जैसे लोहे को लोहा काटता है, वैसे ही विचार को विचार काटता है | आपके इन दो साथियों - आत्मबल एवं रक्षा -कवच के सामर्थ्य पर विश्वास कीजिये | ये सतत आपकी रक्षा एवं पुष्टि करेंगे |

​- -ऋषिप्रसाद - जून २००४ से


Protective Sheath

( Excerpts from Sant Shri Asaramji Bapu's discourses )
When you are sitting in a discourse, in a pure environment, then you have realisation that there is no true joy in lust. Even by accruing wealth,all we get at the end of the day is tension, nothing else. Those who engage in treacherous practices for the benefit of their children, eventually those children themselves spit back at them. This is an oft commonly observed experience in the society. When you return back to the outside world, then in the presence of vibrations of lust-anger of common man, you too get troubled by lust-anger.
On venturing outside, the low vibrations cause our downfall and then we repent. We resolve to become cautious of ourselves, but are once again trumped by those low feelings. Even those with the strongest resolve suffer this same problem. This is a problem not of a few, but pretty much everyone!
If we do not exercise caution, you begin praising me and I fill myself with pride, you begin giving and I start stalking things for myself, then even I would have suffered such depravity that I would become ashamed of coming out in front of you all. This happened once too. When I went to America, then I had a faint thought, "Some of the doltar that is offered to me during puja, arti, donation, I should reserve some for myself rather than depositing it to the committee. It could be useful later on. "

But soon God's grace dawned upon me and with my Guru's support..... I immediately reverted to my devotee, "I want to return to India, get the tickets quickly."
"Bapuji! What will happen to the program ?"
"Whatever has concluded is sufficient. Whatever couple of sessions are left, I want to return to India as soon as I finish them. Get the tickets quickly"
"Have we committed any mistake ?"
"No, No... You have done nothing wrong. But after staying in the air conditioned environment with you all, in your breath and vibration, my mind too has now started having thoughts that I should keep some dollar to myself. "

I am not describing the whole episode, but I got the tickets quickly and prevented myself from slipping away. God is witness to it, I have never visited America again. Many invitations were sent, numerous times I got calls for programs yet I abstained."
Lord Ram ji's Gurudev once said: "He Ramji ! The age old habit of getting carried away in the flood of desires cannot be overcome without long, concerted positive efforts."
When even people of Ramji's generation could slip away and had to engage in concerted efforts, then it cannot be any better in today's age of Kaliyuga. Infact, there is an even greater need to be cautious now. So, to become cautious, I have found a special protective sheath which I found very useful. It is very easy.
To begin with, you must repeat this exercise daily for a few days. Then, within a few days, just reminding oneself of it will form the protective screen around you. Then, the vibrations of low desires will not longer penetrate you.
The eyes see something, the mind wanders off in its crave and then the intellect finally takes decisions accordingly. In this way, every sense is trying to pull the mind towards itself. Mind takes approval from intellect and then you slip away into those cravings.
If you do not exercise self restraint from falling for these cravings, then even Lord or Guru can do nothing to help you out. If the student does not co-operate, how can the teacher or principal combined, help the student to score a better rank. So, you will have to take efforts.
Lord's grace, grace of Scriptures, Saints and Gurudev are all plentiful abound; similar to Sun's rays and rainfall is adequate. But if the farmer does not take any effort, then what is the use of Sun and the rain??
So, take a firm resolve to protect yourself.
Procedure to engage the protective sheath and arouse your inner resolve

Sit in Padmasan or Siddhasan. Keep the backbone erect. Ensure your eyes are half closed- half open... Recite AUM or your Guru mantra and make a firm resolve that
" My graceful Lord is showering His powerful blessings on me which are piercing through me and forming a Sudarshan chakra around me - a sort of rainbow colored sheath. He is protecting me by His divine grace. The rainbow sheath is becoming dense. All impure darkness is fading away. Pure, Sattivic light is spreading all around. Subtle demonaic thoughts are now driven away by this activated light sheath. I am now completely relaxed and relieved."
Hold the breath inside for as long as you can. Repeat the above process in your mind again and again. Generate a mental image. Now, slowly, recite "AUM...." with a long pronunciation while releasing your breath and imagine that "All my sins, desires have been thrown out. My mind-intellect is pure now. "  Do not breathe in immediately after releasing it. Stay put as long as you can and repeat "HARI AUM..... HARI AUM......" mentally. For 10-15 minutes, repeat this process with pranayam and long pronunciation of AUM..... and repose in its peace. Give away any forceful efforts. Let your thoughts spread across the sky. The earth is within the sky. This earth has numerous nations, oceans and people. Among these, there is your body sitting here on an asana. Observe this entire picture through your mental eyes and inner feelings. You are no longer a body, but the true observer of numerous bodies, nations, oceans, earth, planets, constellations, sun, moon and the entire cosmos. You are the sole witness. Awaken yourself in the witnessing state.
After a while, once again recite "AUM...." along with pranayam and peacefully observe your thoughts.
In this state, make a firm resolve "I shall become the way I resolve to be." Desires, hunger for power, wealth, etc must be shunned as under the elephant footprint of power of inner soul, all other miniscule desires are already included. With the dawn of the sun of Divine bliss, why would anyone care for the light from a diminuitive earthen lamp lit by oil?

In order to realise your dreams, you must have the power to shake up your heart with a firm and steady resolve. Make that impact in the deepest recess of your inner self by holding  your breath inside and repeating your resolve. Hold your chest high and throw away all weak-infirm and  pitiable notions inside you.
Always remember, your energy gets wasted due to the ever outgoing fickle and distributed thoughts. So, condense back all those thoughts during spiritual practice and resolve it in the thought of Self and in the activities you perform during the day. Perform all activities without flowing away in desires and with a steady mind. Always remain thoughtful and cheerful. Embrace Life as your own self. Love everyone. Expand your heart. Rid yourself forever of divisive thoughts.
 Through discourses and scriptures given by great saints who have reposed themselves in the Self, one will be able to blossom one's life. To drive away the subtle atoms of vile thoughts, this is a sureshot technique. Just as iron can pierce through iron, so is it true with thoughts too. Have faith in the power of these two companions - Self repose and protective sheath. They will constantly protect and nourish you.

RishiPrasad - June 2004.

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