मनुष्य-जीवन का मुख्य उद्देश्य है आत्मसाक्षात्कार अर्थात अपने वास्तविक
स्वरूप आत्मा-परमात्मा को जान लेना | इसके लिए जिज्ञासु व तत्पर साधकों को
ब्रह्मस्वभाव में स्थित हों अनिवार्य है | इसी ब्रह्मस्वभाव का सत्य महामुनि
अष्टावक्रजी महाराज ने राजा जनक को सुनाया-समझाया, जो ‘अष्टावक्र गीता’ के नाम से
प्रसिद्ध है | यह ग्रंथ योगवासिष्ठ महारामायण, अवधूत गीता आदि वेदान्त ग्रंथों की
श्रुंखला में आता है | इसे ‘अष्टावक्र संहिता’ भी कहा जाता है |
अष्टावक्र गीता का ज्ञान सनातन संस्कृति की ऐसी अनमोल धरोहर है जो जीवन का
सत्य, जो कि परमानन्दस्वरुप है, शांतस्वरूप है, वह मानवमात्र को उसीके पास ...
नहीं - नहीं, वह स्वयं है यह बता देती हैं | ऐसे संस्कार हर उम्र के, हर मत-पन्थ
के, जाति-धर्म के मनुष्य का परम हित करनेवाले हैं | य बचपन में या गर्भावस्था में
मिलें तो और भी सरलता से आत्मसात होकर कल्याण करेंगे | अत: गर्भिणी स्त्रियों को,
माताओं – बहनों को इसके श्लोकों का अथवा इसीके भावानुवादस्वरूप बनी आश्रम की
पुस्तिका ‘श्री ब्रह्मरामायण’ का पठन , चिंतन, श्रवण एवं गायन करते रहना चाहिए |
स्त्रोत : ऋषिप्रसाद – अगस्त २०१६ से
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