वस्तुएँ तो मेजबान की हैं लेकिन जितनी जरूरत है उतना खा, एक ग्रास कम खा | ‘शादी-पार्टी का माल है’ ऐसा सोचकर ज्यादा खाया तो फिर रात को छाती तपेगी, ओ
ओ ओ ....! वस्तुएँ तो उनकी हैं पर पेट तो अपना बिगड़ेगा | खाना चबा-चबा के खाना
चाहिए | कब खाना, कितना खाना, कैसे
खाना – इसकी थोड़ी समझ होगी तो ठीक रहेगा | स्वास्थ्य की कुंजी समझाने के लिए एक
कहावत है :
पेट नरम, पैर गरम, सिर को
रखो ठंडा |
घर में आये रोग तो मारो उसको ठंडा ||
फिर आये हकीम तो उसे दिखाओ डंडा ||
जो पचता नहीं हो, जो
रुचता नहीं हो उसको न खायें तथा रुचता हो और पचना न हो उसको भी ढंग से खायें और
थोडा खायें | किंतु जो रुचता नहीं है पर शरीर के लिए अच्छा है और पचता है , उसको
चाह से खायें और जो रुचता है उसको सँभल के खायें |
जो रुचता है उसे जल्दी-जल्दी खायेगा, ज्यादा खायेगा तो फिर करेगा ‘ओ....
ओ ... ओ ...’ करके | वह अंदर परेशान होगा इसलिए रोयेगा अंदर पेट में
बैठा-बैठा ‘ओ... ओ.... ओ....’ करके | अन्न ब्रह्म है और भोजन प्रसाद है | उसका और
अपने जीवन का आदर करोगे तो तुम स्वस्थ रहोगे |
ऋषिप्रसाद – जून २०२१ से
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