पूज्य बापूजी कहते हैं : ‘आशा –तृष्णा के कारण मन परमात्मा में नहीं लगता | जो-
जो दुःख, पीड़ाएँ, विकार हैं वे आशा – तृष्णा से ही पैदा होते हैं | आशा – तृष्णा
की पूर्ति में लगना मानो अपने – आपको सताना है और इसको क्षीण करने का यत्न करना
अपने को वास्तव में उन्नत करना है |
मन में कुछ आया और वह कर लिया तो इससे आदमी अपनी स्थिति से गिर जाता हैं
परन्तु शास्त्रसम्मत रीति से, सादगी और संयम से आवश्यकताओं को पूरा करें, आशाओं –
तृष्णाओं को न बढायें | आवश्यकताएँ सहज में पूरी होती हैं |
मन के संकल्प –
विकल्पों को दीर्घ ॐकार की ध्वनि से अलविदा करता रहे और नि:संकल्प नारायण में
टिकने का समय बढाता रहे | ‘श्री योगवासिष्ठ’ बार – बार पढ़े | कभी – कभी श्मशान जा
के अपने मन को समझाये, ‘शरीर यहाँ आकर जले उससे पहले अपने आत्मस्वभाव को जान ले,
पा ले बच्चू ! ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर ले बच्चू !’
यदि इस प्रकार अभ्यास करके आत्मपद में स्थित हो जाय तो फिर उसके द्वारा
संसारियों की भी मनोकामनाएँ पूरी होने लगती हैं |”
स्त्रोत – ऋषि प्रसाद – जनवरी – २०१७ से
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