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Thursday, January 5, 2017

परमात्मा में मन नहीं लगता तो –

पूज्य बापूजी कहते हैं : ‘आशा –तृष्णा के कारण मन परमात्मा में नहीं लगता | जो- जो दुःख, पीड़ाएँ, विकार हैं वे आशा – तृष्णा से ही पैदा होते हैं | आशा – तृष्णा की पूर्ति में लगना मानो अपने – आपको सताना है और इसको क्षीण करने का यत्न करना अपने को वास्तव में उन्नत करना है |

मन में कुछ आया और वह कर लिया तो इससे आदमी अपनी स्थिति से गिर जाता हैं परन्तु शास्त्रसम्मत रीति से, सादगी और संयम से आवश्यकताओं को पूरा करें, आशाओं – तृष्णाओं को न बढायें | आवश्यकताएँ सहज में पूरी होती हैं | 

मन के संकल्प – विकल्पों को दीर्घ ॐकार की ध्वनि से अलविदा करता रहे और नि:संकल्प नारायण में टिकने का समय बढाता रहे | ‘श्री योगवासिष्ठ’ बार – बार पढ़े | कभी – कभी श्मशान जा के अपने मन को समझाये, ‘शरीर यहाँ आकर जले उससे पहले अपने आत्मस्वभाव को जान ले, पा ले बच्चू ! ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर ले बच्चू !’

यदि इस प्रकार अभ्यास करके आत्मपद में स्थित हो जाय तो फिर उसके द्वारा संसारियों की भी मनोकामनाएँ पूरी होने लगती हैं |”


स्त्रोत – ऋषि प्रसाद – जनवरी – २०१७ से 

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