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Monday, July 23, 2012

पुरुष सूक्त ( चातुर्मास विशेष )


चातुर्मास में जो भगवन विष्णु के समक्ष पुरुष सूक्त का पाठ करता है उसकी बुद्धि बढ़ेगी | कैसा भी दबू विद्यार्थी हो बुद्धिमान बनेगा |

ॐ श्री गुरुभ्यो नमः

हरी ॐ

सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |

स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||||

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||||

पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् |

उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||२||

जो सृष्टि बन चुकी, जो बननेवाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं | इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ||२||

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः |

पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ||३||

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है | इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ||||

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः |

ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ||४||

चार भागोंवाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, ड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है | इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्षमें समाये हुए हैं ||४||

ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः |

स जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ||५||

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ | उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए | वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ||५||

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् |

पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ||६||

उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ(जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है) | वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ||६||

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे |

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ||७||

उस विराट यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ | उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ||७||

तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः |

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ||८||

उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौए, बकरिया और भेड़s आदि पशु भी उत्पन्न hue हुए ||८||

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत:|

तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ||९||

मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांड रूपयज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ ) का प्रादुर्भाव किया ||९||

यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् |

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ||१०||

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का, ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाघें और पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ||१०||

ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: |

ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्या शूद्रोSअजायत ||११||

विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानी (विवेकवान) जन हुए | क्षत्रिय अर्थात पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं | वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए ||११||

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत |

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ||१२||

विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ ||१२||

नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत |

पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ||१३||

विराट पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं | इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है) ||१३||

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |

वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म: शरद्धवि: ||१४||

जब देवों ने विराट पुरुष रूप को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन(समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ||१४||

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त: समिध: कृता:|

देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५||

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ||१५||

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |

ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ||१६||

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया | यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास, स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ||१६||

ॐ शांति: ! शांति: !! शांति: !!!

Excellent reading in the Chaturmas Purusha Sukta

One who repeats Purusha Sukta standing before Lord Vishnu in Chaturmas gains in wisdom.

Aum Salutation to Gurudev!

Hari Om

सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |

स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||||

The Purusha has thousand Heads, He has thousand eyes, He has thousand feet, He is spread all over the Universe, and yet exceeds it by ten fingers.

पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् |

उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||२||

This Purusha is all the past, all the future and the present, He is the Lord of deathlessness, and He is the Lord also of this universe made of food.

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः |

पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ||३||

This is much greater than all his greatness in what all we see and all that we see in this universe is but his quarter, and the rest three quarters which is beyond destruction is safely in the world’s beyond.

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः |

ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ||४||

Above this world is three quarters of Purusha, but the quarter, which is this world, appears again and again, and from that is born the beings that take food, and those inanimate ones that don’t take food. And all these appeared for every one of us to see.

ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः |

स जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ||५||

From that Purusha was born the scintillating, ever shinning universe, and from that was born the Purusha called Brahma. And he spread himself everywhere and created the earth and then the bodies of all beings.

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् |

पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ||६||

From this sacrifice called “All embracing”. Curd and Ghee came out, animals meant for fire sacrifice were born, birds that travel in air were born, and the beasts of the forest were born, and also born were those that live in villages.

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे |

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ||७||

From thius sacrifice called “All embracing”. The chants of Rig Veda were born, The chants of Sama Veda were born, and from that the well-known meters were born, and from that Yajur Veda was born.

तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः |

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ||८||

From that the horses came out, from that came out animals with one row of teeth, from that the came out cows with two rows of teeth, from that came out sheep and goats.

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत:|

तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ||९||

Sprinkled they the Purusha, who was born first on that sacrificial fire. And the sacrifice was conducted further by Devas called Sadyas, and the Sages who were there.

यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् |

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ||१०||

When the Purusha was made by their thought process by the Devas. How did they make his limbs? How was his face made? Who were made as his hands? Who were made his thighs and feet?

ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: |

ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्या शूद्रोSअजायत ||११||

His face became Brahmins, His hands were made as Kshatriyas, His thighs became Vaisyas, His feet were born the Shudras.

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत |

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ||१२||

From His mind was born the Moon, from his eyes was born the Sun, from his ears was born the air and the Prana, from His face was born Agni.

नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत |

पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ||१३||

From His belly button was born the sky, from His head was born the heavens, from His feet was born the earth, from His ears were born the direction, and thus was made all the worlds. Just by His holy wish.

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |

वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म: शरद्धवि: ||१४||

The spring was the ghee, the summer was the holy wooden sticks and the winter the sacrificial offering used in the sacrifice conducted by Devas through thought in which they also sacrificed the ever-shinning Purusha.

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त: समिध: कृता:|

देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५||

Seven meters were its boundaries, twenty one principles were holy wooden sticks, and Devas carried out the sacrifice, and the Brahma was made as the sacrificial cow.

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् |

ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ||१६||

Thus the Devas worshipped the Purusha, through this spiritual Yajna, and that Yajna became first among Dharmas. Those who observe this Yajna would for sure attain the heavens occupied by Sadya Devas.

Om Shanti !! Om Shanti !! Om Shanti !!

- ऋषि प्रसाद July 2012


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