(गणेश चतुर्थी :
२२ अगस्त)
जो देहभाव में आ
गया है, स्थूल जगत को सच्चा मानता है, इन्द्रियों में बहल गया है उसको जब तक गणपति
दादा ( तात्त्विक अर्थ में चैतन्यस्वरूप परमात्मा) की कृपा नहीं होगी, इन्द्रियों
के जो स्वामी हैं, इन्द्रियों के जो आधार हैं उनका पूजन अगर नहीं करेंगा तब तक
प्राकृतिक संसार में और फैलता जायेगा, और बहलता जायेगा | शायद इसलिए तुम्हारा कोई
भी शुभकर्म होता है.... फिर चाहे मकान की ईट रखो, चाहे वास्तु-पूजन करो, चाहे
विवाह हो, चाहे और कोई शुभ प्रसंग हो, पहले गणपतिजी का पूजन किया जाता है : ॐ
गणानां त्वा गणपतियें हवामहे....
आँख, कान, नाक –
ये सब हमारी जो इन्द्रियों हैं, इनको भी ‘गण’ कहा है | इन गणों के जो पति, स्वामी
( आधारस्वरूप, नियामक परमात्मा ) है उनको रिझाओ तो तुम्हारे गण ठीक से काम करेंगे,
जीवन में विघ्न नहीं डालेंगे और भौतिक जगत की आसक्ति से बचने के लिए भी इन गणपति
दादा का पूजन करो |
सामान्य लोग गणों
के स्वामी शुद्ध चैतन्य परमात्मा को न समझ पायेंगे इसलिए पौराणिक कथाएँ हैं कि
अमुक – अमुक देव की पूजा करते हुए आत्मज्ञान को पायें | जैसे बिजलीघर की लाइन आ
जाय और सीधा बल्ब लगा दें तो बल्ब उड़ जाता है | इसलिए उसकी व्यवस्था सीधे बिजलीघर
से सब-स्टेशन अथवा ट्रांसफॉर्मरवाली लाइन से फिर बल्ब में होती है | ऐसे ही सीधा
आत्मज्ञान न पा सकें तो देवों का सहारा लें |
देव तो बहुत हैं
किंतु उन देवों में ५ ख़ास चुने हुए देव हैं – भगवान शिव, भगवान विष्णु, भगवती,
सूर्यनारायण और भगवान गणपति | इन पाँचों में भी सब देवों से पहले में पहली पूजा
गणपति दादा की होती है |
गणेश चतुर्थी ही
क्यों ?
गणेश चतुर्थी ही
क्यों मनायी जाती है ? गणेश पंचमी, गणेश सप्तमी, गणेश तीज मनाते....! तत्त्ववेताओं
की भावना, मान्यता है कि सत्त्व, रज, तम – ये तीन गुण होते हैं | इन तीनों गुणों को सत्ता देनेवाला जो चैतन्य है वह चौथा
है | जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति – ये तीन अवस्थाएँ है, इन अवस्थाओं को देखनेवाली जो
है वह तुरिया अवस्था है, चौथी अवस्था है | भूत, भविष्य और वर्तमान- इन तीनों कालों
को जो देखनेवाला है वह कालातीत है , चौथा है | ज्ञानमार्ग का जिन्होंने
साक्षात्कार किया है उन महापुरुषों का भी अनुभव है कि ये तीन अवस्थाएँ संसार की
हैं और चौथी अवस्था साक्षी चैतन्यस्वरूप की है इसलिए गणपतिजी का उत्सव गणेश
चतुर्थी को मनाया जाता है |
और १०-११ दिन
उत्सव मनाकर फिर गणपति दादा का विसर्जन किया जाता है | सनातन धर्म की इतनी
विशालता-उदारता है कि तुमको अपना मूल स्वरूप समझाने के लिए उसने ऐसा विधान कर रखा
है कि जिनकी अपने मूल स्वरूप में स्थिति है उनकी प्रतिमा बनाकर उनके आगे
नाचो-कूदो.... अपना अहंकार विसर्जित करो | तुम्हारे अहंकार विसर्जित करने में
सहायक प्रतिमा का भी विसर्जन करने की व्यवस्था है तब भी तुम्हारे देव तुम पर नाराज
नहीं होते हैं, तुम्हारा कल्याण देख के वे राजी हो जाते हैं | यह हमारे देवों की
भी उदारता है | देव की मूर्ति का विसर्जन होने के बाद भी देव का देवत्व राजी हो
जाते हैं | ऐसे ही तुम्हारे शरीर का विसर्जन होने के बाद भी तुम्हार आत्मतत्व रहता
है, तुम रहते हो | इस अपने असली स्वरूप को समझने के लिए तुम्हे साधना, सत्संग की
सुझबुझ ढानी चाहिए |
ऋषिप्रसाद
– अगस्त २०२० से
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