आयुर्वेद में
संक्रामक बीमारियों का वर्णन आगंतुक ज्वर (अर्थात शरीर से बाह्य कारणों से उत्पन्न
बुखार या रोग ) के अंतर्गत आया है | यह किसीको होता है और किसीको नहीं, ऐसा क्यों
?
चरक संहिता
(चिकित्सा स्थान :३.११-१२) में आचार्य पुनर्वसु कहते हैं : “एक ही ज्वररूपी अर्थ
को ज्वर, विकार, रोग, व्याधि और आतंक – इन नामबोधक पर्याय शब्दों से कहा जाता है |
शारीरक व मानसिक दोषों के प्रकोप के बिना शरीरधारियों को ज्वर (रोग) नहीं होता अत:
शारीरिक वात, पित्त, कफ तथा मानसिक रजो –तमोगुणरूप दोष ज्वर के मूल कारण कहे गये
हैं |”
तात्पर्य, यदि
शारीरिक व मानसिक दोष विकृत नहीं होंगे तो कोई रोगाणु शरीर में प्रवेश करने पर रोग
को उत्पन्न नहीं कर पायेगा, कुछ हलके-फुलके लक्षण दिखा सकता हैं |
इसका अर्थ यह नहीं
हैं कि असावधानी बरती जाय | रोगाणु शरीर में प्रवेश ही न करें इसकी सावधानी एवं
नियम-पालन तो परम आवश्यक है किंतु साथ ही अनजाने में कोई रोगाणु शरीर में प्रवेश
कर ले तो उसे अपना प्रभाव जमाने का मौका न मिले ऐसी सुरक्षात्मक सावधानी रखने के
प्रति सजग करने का यहाँ उद्देश्य है |
दोष-विकृति के
कारण
१] जठराग्नि की
विकृति : चरक संहिता (चि.स्था.:१५.४२-४४) के अनुसार ‘भूख लगने पर भोजन न करने से,
पहले खाया हुआ भोजन नहीं पचने पर भी बिना भूख के भोजन करने से, कभी ज्यादा-कभी कम,
कभी समय पर तो कभी असमय भोजन करने से, पचने में भारी, ठंडे, अति रूखे, दूषित व
प्रकृति-विपरीत पदार्थो के सेवन से, मल-मूत्रादि के वेगों को रोकने से,
देश-काल-ऋतू के विपरीत आहार होने से दूषित हुई जठराग्नि पचने में हलके अन्न को भी
उचितरूप में नहीं पचा पाती | नहीं पचा अन्न विष के समान हानिकारक हो जाता है |’
चरक संहिता (विमान
स्थान:२.९) में आता है कि ‘चिंता, शोक, भय, क्रोध, दुःख, शय्या (दिन में सोना ) और
देर रात तक (११-१२ बजे के बाद) जागरण के कारण मात्रा से भी खाये हुए पथ्य अन्न का
ठीक से पाचन नहीं होता है |’
अत: स्वस्थ रहने
की इच्छावालों कप उपरोक्त असावधानियों से बचना चाहिए |
२] उचित आहार,
निद्रा और ब्रह्मचर्य का अभाव: उचित आहार, उचित निद्रा एवं ब्रह्मचर्य-पालन-ये
वात, पित्त और कफ को संतुलित रखते हुए शरीर को स्वस्थ व निरोग बनाये रखते हैं
इसलिए इन तीनों को आयुर्वेद ने शरीर के ‘उपस्तम्भ’ माना है | अत: उत्तम स्वास्थ्य
के लिए इन तीनों का ध्यान रखना अनिवार्य हैं |
३] हितकारक सेवन,
आचार, कर्मों का अभाव : मनुस्मृति (१.१०८) में आता है कि ‘सभी धर्मों
(कर्तव्य-कर्मों) में ‘सदाचार’ सर्वोत्तम है |’ इसका आचरण करने से जीवन सफल होता
है व न करने से मनुष्य का विनाश हो जाता है |
चरक संहिता (सूत्र
स्थान: ७.६०) में कहा गया है : ‘इस संसार में और मरने के बाद सुख की इच्छा
रखनेवाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह आहार, आचार और सभी प्रकार की चेष्टाओं
में हितकारक वस्तु के सेवन का परम प्रयत्न करे |’ यहाँ आहार से तात्पर्य केवल
स्थूल भोजन से नहीं लें | पाँच इन्दिर्यों द्वारा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध – यह
जो भी सेवन किया जाता है वह महापुरुषों व शास्त्रों द्वारा ‘आहार’ ही कहा गया है |
इन सभीके सेवन में असावधानी रोग-बीमारियों को जन्म देती है |
रोगाणुजन्य आगंतुक
रोगों से बचने एवं उत्तम स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है कि दोष-विकृति
करनेवाले कारणों से बचा जाय |
आगंतुक रोगों की
उत्पत्ति रोकने का उपाय
रोगों की उत्पत्ति
के बाद उनका उपचार करना, इससे भी अच्छा यह माना गया है कि रोग पैदा ही न हों इसकी
पहले से ही सावधानी रखी जाय, स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा की जाय-
स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं.... (च.सं., सू. स्था.:३०.२६)
चरक संहिता
(सू.स्था. :७.५३-५४)में आता है :’प्रज्ञापराधों (बुद्धि की नासमझी से उत्पन्न
अपराधों ) का त्याग करना, इन्द्रियों का उपशम अर्थात इन्दिर्यों को अपने वश में
रखना, स्मरणशक्ति उत्तम रखना, देशज्ञान, कालज्ञान (देश व काल के अनुरूप आहार-विहार
का ज्ञान ) और आत्मज्ञान का चिंतन करके उनको स्वभाव में आत्मसात करना और सदवृत्त
(शास्त्र व संत सम्मत सदाचार) का पालन करना – यह आगंतुक रोगों के उत्पन्न न होने
देने का मार्ग है | बुद्धिमान व्यक्ति को रोगोत्पत्ति होने से पहले ही ऐसे कार्य
करने चाहिए जिनसे अपना हित हो सके |’
आप्तोपदेश – पालन
से लाभ
‘आप्तपुरुषों
(ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों) के उपदेशों को विशेषरूप से प्राप्त करना और ठीक प्रकार
से उनका पालन करना – ये दो कारण मनुष्यों की रोगों उत्पत्ति से रक्षा करते हैं और
उत्पन्न रोगों को शीघ्र ही शांत करते हैं |’ (च.सं., सू.स्था.: ७.५५)
हमारे
शास्त्रों-महापुरुषों व शास्त्रों द्वारा ‘आहार’ ही कहा गया है | इन सभीके सेवन
में असावधानी रोग-बीमारियों को जन्म देती है |
रोगानुजन्य आगंतुक
रोगों से बचने एवं उत्तम स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है कि दोष-विकृति
करनेवाले कारणों से बचा जाय |
आगंतुक रोगों की
उत्पत्ति रोकने का उपाय
रोगों की उत्पत्ति
के बाद उनका उपचार करना, इससे भी अच्छा यह माना गया है कि रोग पैदा ही न हों इसकी
पहले से ह सावधानी रखी जाय, स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा की जाय - स्वस्थस्य
स्वास्थ्यरक्षणं.... (च.सं., सू. स्था.:३०.२६)
चरक संहिता
(सू.स्था.:७.५३-५४) में आता है : ‘प्रज्ञापराधो (बुद्धि की नासमझी से उत्पन्न
अपराधों ) का त्याग करना, इन्दिर्यों का उपशम अर्थात इन्द्रियों को अपने वश में
रखना, स्मरणशक्ति उत्तम रखना, देशज्ञान, कालज्ञान (देश व काल के अनुरूप आहार-विहार
का ज्ञान) और आत्मज्ञान का चिंतन करके उनको स्वभाव में आत्मसात करना और सदवृत्त
(शास्त्र व संत सम्मत सदाचार) का पालन करना – यह आगंतुक रोगों के उत्पन्न न होने
देने का मार्ग है | बुद्धिमान व्यक्ति को रोगोत्पत्ति होने से पहले ही ऐसे कार्य करने
चाहिए जिनसे अपना हित हो सके |’
आप्तोपदेश-पालन से
लाभ
‘आप्तपुरुषों (
ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों ) के उपदेशों को विशेषरूप से प्राप्त करना और ठीक प्रकार
से उनका पालन करना – ये दो कारण मनुष्यों की रोगों की उत्पत्ति से रक्षा करते हैं
और उत्पन्न रोगों को शीघ्र ही शांत करते हैं |’
(च. सं., सू.स्था. :७:५५ )
हमारे
शास्त्रों-महापुरुषों द्वारा बताये गये ऐसे निर्देशों की जिस व्यक्ति, समाज, देश
द्वारा जितनी उपेक्षा की जाती है, उसे उसका उतना ही अधिक दुष्परिणाम भुगतना पड़ता
है और इन निर्देशों का जितना आदरपूर्वक पालन किया जाता है उतना ही ऊँचा लाभ उसे
होता है |
रोगप्रतिरोधक
क्षमता बढायें
चिकित्सा विज्ञान
कहता है कि जीवाणु या विषाणु रोगप्रतिकारक शक्ति कम होने पर संक्रमित करते हैं |
देशवासी सजग एवं विशेष तत्पर होकर ब्रह्मनिष्ठ संतों एवं सत्शास्त्रों द्वारा
बताये गये जीवन को निरोगी, स्वस्थ, रोगप्रतिकारक शक्ति से सम्पन्न बनानेवाले
निर्देशों का पालन करें तो बीमारियों एवं महामारियों से रक्षित होने में मदद मिलेगी
|
कैसा हो आहार-विहार ?
महामारियाँ मानव-समाज को बहुत कुछ सीख देती जा रही हैं, जैसे –
१] व्यक्तिगत व सामजिक स्वच्छता |
२] कार्य के समय दुरी बनाये रखते हुए अपने स्वास्थ्य
एवं आभा की रक्षा करना |
३] दूसरों से हाथ न मिलाना एवं प्राणियों के स्पर्श व
श्वासोच्छवास से बचना |
४] अंडा, मांसाहार
एवं व्यसनों से दूर रहकर शुद्ध, सात्त्विक, शाकाहारी आहार लेना |
५] बिगड़ी हुई दिनचर्या को सुधारना |
स्वास्थ्य-रक्षा हेतु इनका भी ध्यान रखें :
१] पीने के लिए
उबालकर ठंडे किये पानी का उपयोग करें |
२] यदि उपलब्ध एवं अनुकूल हो तो सुबह तुलसी व नीम के
पत्ते लें | ( अथवा तुलसी अर्क व नीम अर्क पानी मिला के ले सकते हैं |)
३] फ्रिज में रखी चीजों का सेवन जठराग्नि मंद करने के
साथ अन्य हानियाँ भी करता हैं |
४] बाजारू खान-पान से बचें |
५] प्राणायाम,योगासन, सूर्यनमस्कार आदि यथाशक्ति करें |
६] गुनगुने पानी में थोड़ी हल्दी व सेंधा नमक डाल के रोज
१ – २ बार गरारे कर सकते हैं |
करें रोगाणुरहित वातावरण का निर्माण
· घर
में नित्य कपूर जलाने से वातावरण के रोगाणु नष्ट होते हैं तथा शरीर पर बीमारियों
का आक्रमण आसानी से नहीं होता |
· अथर्ववेद
( कांड १९, सूक्त ३८, मंत्र
१ ) में आता है कि ‘जिस मनुष्य के आसपास औषधिरूप गूगल कि श्रेष्ठ सुगंध व्याप्त
रहती है, उसे कोई रोग पीड़ित नहीं करता |’ पूज्य बापूजी के
सत्संग में आता है कि “जैसे बिल्ली को देखकर चूहे और शेर को देख के जंगली पशु भाग
जाते हैं, ऐसे ही गूगल का धूप जहाँ होता हैं वहाँ से रोग के
कीटाणु भाग जाते हैं | गोबर के कन्डो (या गौ-चंदन धूपबत्ती के टुकडो ) पर घी कि
बूँदे, चावल, कपूर, गूगल आदि
धूप-सामग्री डालकर धुआं करें या नीम के पत्तों का भी धुआँ कर सकते हैं |
· थोडा
गोमूत्र पानी में डालकर घर में पोंछा आदि लगाया जाय | केमिकलवाला फिनायल तो
रोगाणुओं को मारता है, पवित्रता नहीं लाता परंतु
गोमूत्र तो रोगाणुरहित करते हुए पवित्रता भी लाता है |
डर नहीं, सावधानी
है जरूरी
डर से तनाव बढ़ता है और तनाव से रोगप्रतिरोधक शक्ति का
ह्रास होता है | अत: महामारी से भयभीत होने के बजाय इससे संबंधित सावधानियों और
उपचार में सजग रहें | विश्व के लिए विषम काल में जनता तक सही, शास्त्रीय जानकारी पहुंचानेवालों को साधुवाद है और भ्रामक बातें
फैलानेवाले से सावधान रहना जरूरी है |
ऋषिप्रसाद – जुलाई २०२० से
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